एक सुदृढ़ एवं तरूण भिखारी किसी धनिक के पास जाकर भीख माँगने लगा। धनिक ने जब पुछताछ की तो उसे पता चला कि भिखारी के पास दो भिक्षापात्र और एक गुदडी़ है। धनिक ने उसे कहा कि “में जैसा कहूँ यदि तुम वैसा करो, तो मैं तुम्हारी मदद अवश्य करूँगा।” भिखारी ने उसे स्वीकार किया। धनिक के कथनानुसार वह बाजार में गया और दोनों भिक्षापात्रों को बेचकर जो पैसे मिले उनसे एक कुल्हाड़ी और खाने के कुछ पदार्थ ले आया। धनिक ने उसे कहा- “अब तुम पेटभर भोजन करो। इस कुल्हाड़ी को लेकर रोज जंगल में जाया करो और लकड़ियाँ तोड़कर लाया करो। उन्हें बेचकर अपना पेट भरा करो।” धनिक ने उस भिखारी को स्वावलंबन का पाठ सिखा दिया। अब वह भिखारी भिखारी नहीं रहा। उसके भीख माँगने के दिन समाप्त हो गये। याचक की तरह दीन बन कर किसी के मुँह की ओर ताकने की उसे आवश्यकता नहीं रही। अब वह आनंदपूर्ण जीवन जीने लगा। उसकी स्थिति सुधर गयी। अब वह धनवान बन गया।
हमारे पास पाँच इंद्रियों के पाँच कटोरे हैं। उन्हें लेकर घूमने की, उनके लिए याचना करने की हमारी आदत बन गयी है, इसलिए अपने आत्म वैभव को जानने की दिशा में हम अंध बन गये हैं। शरीर के अतिरिक्त अन्य कुछ है ही नहीं ऐसी हमारी धारणा बन जाने के कारण हममें अपने ही स्वभाव के विषय में विश्वास नहीं रहा है।
एक बार ज्ञानरूपी सूर्य की किरणें प्रकट हो गयीं कि इस अज्ञानरूप अंधकार का भेद अपने आप हो जाता है। वहाँ याचकता नहीं बचती। जब अपने पास केवलज्ञानरुपी वैभव हो तो फिर हम जड़ धन-स्वर्ण की अपेक्षा क्यों करें ? परिपूर्ण ज्ञानानंदस्वरूप जान लें तो अज्ञानरूप, दु:खरूप पर से प्राप्त करने योग्य कुछ भी नहीं बचता।
हमारे पास पाँच इंद्रियों के पाँच कटोरे हैं। उन्हें लेकर घूमने की, उनके लिए याचना करने की हमारी आदत बन गयी है, इसलिए अपने आत्म वैभव को जानने की दिशा में हम अंध बन गये हैं। शरीर के अतिरिक्त अन्य कुछ है ही नहीं ऐसी हमारी धारणा बन जाने के कारण हममें अपने ही स्वभाव के विषय में विश्वास नहीं रहा है।
एक बार ज्ञानरूपी सूर्य की किरणें प्रकट हो गयीं कि इस अज्ञानरूप अंधकार का भेद अपने आप हो जाता है। वहाँ याचकता नहीं बचती। जब अपने पास केवलज्ञानरुपी वैभव हो तो फिर हम जड़ धन-स्वर्ण की अपेक्षा क्यों करें ? परिपूर्ण ज्ञानानंदस्वरूप जान लें तो अज्ञानरूप, दु:खरूप पर से प्राप्त करने योग्य कुछ भी नहीं बचता।
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